जानिए कंगना रनौत की फिल्म एमरजेंसी (2024) का पूरा रिव्यू — जिसमें इंदिरा गांधी की जिंदगी और भारत में 1975 में लगी आपातकालीन स्थिति को दिखाया गया है। पढ़िए परफॉर्मेंस, कहानी और रियलिटी के बीच संतुलन की पूरी समीक्षा।

निर्देशक: कंगना रनौत
मुख्य कलाकार: कंगना रनौत, अनुपम खेर, श्रेयस तलपड़े, महिमा चौधरी, सतीश कौशिक
शैली: राजनीतिक ड्रामा | ऐतिहासिक बायोपिक
भाषा: हिंदी
अवधि: 2 घंटे 25 मिनट
रेटिंग: ★★★☆☆ (3/5)
परिचय
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 1975 की एमरजेंसी एक ऐसा अध्याय है, जिसे आज भी याद करते हुए बहस छिड़ जाती है। कंगना रनौत द्वारा निर्देशित और अभिनीत फिल्म एमरजेंसी उसी दौर को सिनेमाई परदे पर लाने का प्रयास करती है — जहां सत्ता, संविधान, और जनतंत्र के मूल्यों की सबसे कठिन परीक्षा हुई थी।
यह फिल्म न केवल उस ऐतिहासिक घटना की तस्वीर दिखाती है, बल्कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के किरदार को भी एक नई दृष्टि से पेश करने की कोशिश करती है — एक शक्तिशाली महिला, एक मां और एक नेता के रूप में।
कहानी (बिना स्पॉइलर)
साल 1975 की गर्मियों में जब राजनीतिक विरोध अपने चरम पर था, इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद इंदिरा गांधी पर प्रधानमंत्री पद छोड़ने का दबाव बढ़ता है। इसके जवाब में वह देशभर में आपातकाल (Emergency) की घोषणा करती हैं — एक ऐसा फैसला जिसने नागरिक अधिकारों, मीडिया स्वतंत्रता और न्यायिक स्वतंत्रता को सीधे तौर पर चुनौती दी।
फिल्म में इंदिरा गांधी के साथ उनके पुत्र संजय गांधी, विपक्षी नेता जयप्रकाश नारायण, और कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं के बीच की खींचतान को दिखाया गया है। फिल्म राजनीति के भीतर की चालों के साथ-साथ इंदिरा गांधी के निजी संघर्षों को भी दर्शाती है।
अभिनय
कंगना रनौत – इंदिरा गांधी के रूप में
कंगना ने इंदिरा गांधी का रूप, बोलचाल, और चाल-ढाल बखूबी अपनाई है। उनका प्रदर्शन सशक्त है, लेकिन कुछ दृश्यों में यह अत्यधिक नाटकीय लग सकता है। उन्होंने किरदार को एक मजबूत महिला और एक भावनात्मक इंसान दोनों रूपों में दिखाने की कोशिश की है।
अनुपम खेर – जयप्रकाश नारायण
अनुपम खेर फिल्म के सबसे प्रभावशाली किरदारों में से एक हैं। उनका शांत और आत्मविश्वास से भरा अभिनय हर सीन को खास बना देता है। वह इंदिरा गांधी की नीतियों के सबसे बड़े विरोधी के रूप में फिल्म में संतुलन बनाते हैं।
श्रेयस तलपड़े – अटल बिहारी वाजपेयी
श्रेयस का किरदार छोटा जरूर है, लेकिन उन्होंने वाजपेयी जी की गरिमा और राजनीतिक सूझबूझ को अच्छे से पेश किया है।
महिमा चौधरी और सतीश कौशिक
महिमा, पुपुल जयकर की भूमिका में, इंदिरा गांधी के निजी पक्ष को उजागर करने वाली महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वहीं सतीश कौशिक की यह अंतिम फिल्मों में से एक है, जिसमें वे अपनी सधी हुई अदाकारी का नमूना पेश करते हैं।
निर्देशन और पटकथा
कंगना रनौत का निर्देशन साहसिक है। एक विवादास्पद और संवेदनशील विषय को फिल्म में लाना एक बड़ी जिम्मेदारी थी, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। हालांकि कुछ जगहों पर पटकथा थोड़ी धीमी और संवाद ज्यादा ‘डायलॉगबाजी’ जैसे लगते हैं।
पहला भाग थोड़ा लंबा और धीमा लगता है, जबकि दूसरा भाग कोर्टरूम ड्रामा और संघर्ष के कारण ज्यादा प्रभावशाली बन पड़ता है।
तकनीकी पक्ष
सेट डिजाइन और सिनेमैटोग्राफी बेहद मजबूत है। संसद भवन, प्रेस रूम और इंदिरा गांधी का ऑफिस जैसे लोकेशन यथार्थ के करीब लगते हैं। कैमरा वर्क (फ्रांसीसी सिनेमैटोग्राफर तेत्सुओ नागाटा द्वारा) दृश्य को गंभीर और क्लासिक टोन देता है।
बैकग्राउंड स्कोर कहानी की गंभीरता को बनाए रखता है, हालांकि यह यादगार नहीं है। फिल्म में गीतों की जगह कम है, जो विषय की मांग के अनुसार ठीक लगता है।
विवाद और ऐतिहासिक सटीकता
फिल्म वास्तविक घटनाओं पर आधारित है, लेकिन कुछ नाटकीय आज़ादी भी ली गई है — जैसे संवादों में अधिक प्रभावशाली भाषा और कुछ भावनात्मक दृश्यों का फिल्मीकरण। इससे कुछ दर्शकों को फिल्म ‘एकतरफा’ या ‘महिमामंडन’ जैसी लग सकती है।
हालांकि, कंगना गांधी जी को पूरी तरह गलत नहीं ठहरातीं, बल्कि उन्हें एक जटिल व्यक्तित्व के रूप में पेश करती हैं — जो हालातों के कारण कठोर निर्णय लेती हैं।
मुख्य विषय
- सत्ता और लोकतंत्र का संघर्ष
- व्यक्तिगत निर्णय बनाम राष्ट्रीय हित
- महिला नेतृत्व और राजनीतिक दबाव
- विरोध की आवाज़ों का दमन
क्या अच्छा है:
- विषय की गंभीरता को अच्छी तरह दिखाया गया है
- कंगना और अनुपम खेर का अभिनय
- अच्छी प्रोडक्शन वैल्यू और सेट डिज़ाइन
- भारत के इतिहास को एक नई पीढ़ी के सामने लाना
क्या कमज़ोर है:
- कुछ हिस्से धीमे हैं
- भावनात्मक दृश्यों में ज़रूरत से ज्यादा नाटकीयता
- बैकग्राउंड म्यूजिक प्रभावी लेकिन औसत
अंतिम निष्कर्ष
एमरजेंसी एक बहादुर प्रयास है जो भारत के लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे विवादास्पद अध्याय को पर्दे पर लाता है। फिल्म इतिहास, राजनीति और शक्ति के उपयोग और दुरुपयोग की कहानी कहती है। यह फिल्म हर भारतीय को यह सोचने पर मजबूर करती है कि लोकतंत्र की कीमत क्या होती है।
रेटिंग: 3/5
निर्णय: एक सशक्त विषय पर बनी फिल्म जो सोचने पर मजबूर करती है, हालांकि इसमें और गहराई हो सकती थी।